प्रवीण झुग्गी- झोपड़ियों में बच्चों को लेकर चलायी गयी सफ़रमैना की एक कार्यशाला के माध्यम से निर्माण से जुड़ा था। जिसमें बचपन से ही एक अच्छे रंगकर्मी के तमाम गुण मौजूद थे। उसमें चाह, रूचि और क्षमता का संतुलित समावेश था। अपने अच्छे स्वाभाव, शानदार गुणग्राह्यता और अदम्य उत्साह के बल पर वो रंगमंच की सीढियाँ चढ़ता गया। उसने दर्जनों नाटक किये और उसके अभिनय को गुणवान लोगों का आशीष मिला। झोपड़े के उस नवयुवक ने रंगमंच का सरताज बनने का सपना देखा, जो जरूर पूरा होता अगर उसकी कामयाबी को दूसरों की नज़र न लगी होती। प्रवीण उसी नन्द नगर कॉलोनी का वाशिंदा था, जहाँ अपराध के कीड़े गिजबिजाते थे।
प्रवीण की प्रतिभा और दृढ़ लालसा ने उसे एक आवश्यक अंग बना दिया। दिल्ली पब्लिक स्कूल में उसकी शिक्षक के रूप में नौकरी मिली तो मानो उसकी दिनचर्या बदल गयी, रहन- सहन का ढंग बदल गया। उसने एक सेकण्ड हैण्ड बाईक ले ली। अच्छे कपडे पहनने लगा। ऊँचें लोगों के साथ उठने- बैठने लगा और उसकी ये तरक्की दूजों की आँखों में चुभ गयी और एक सुबह मानवशरीरी जानवरों के दल ने उस निर्दोष को गोलियों की भेंट चढ़ा दी। एक सम्भावना यूँ अकाल ही काल के गाल में समा गयी।
इसके बाद पटना की तक़रीबन सभी नाट्य संस्थाओं ने मिलकर "हिंसा के विरुद्ध संस्कृतिकर्मियों का साझा मंच" बनाया और इस घटना के विरोध में सभायें, धरनें, प्रदर्शन हुए। सरकार के सामने मांगें राखी गयी। आखिरकार हत्यारे पकड़े गए। प्रवीण की स्मृति में उसके घर की सड़क का नामकरण किया गया। उसके मरण- स्थल को मंच बनाकर हर वर्ष उसकी पुण्यतिथि १० दिसंबर को नाटक खेलने की परंपरा शुरू की गयी और तक्षशिला एजुकेशन सोसायटी के सौजन्य से "रंगकर्मी प्रवीण स्मृति सम्मान" की शुरुआत की गयी, जो उस रंगकर्मी की शहादत के श्रद्धांजलिस्वरूप हर वर्ष एक जागरूक रंगकर्मी को दी जाती है। उसकी हत्या के दिन प्रवीण की याद में नाटक खेलने का सिलसिला कायम हुआ। इस सम्मान को पाने वाले रंगकर्मी प्रारम्भ से निम्न हैं :-
शशिभूषण वर्मा, संतोष झा, प्रवीण कुमार गुंजन, लक्ष्मी मिश्रा, अरविन्द कुमार, सुमन कुमार, अर्चना सोनी, पंकज करपटने, रणधीर कुमार, विजेंद्र कुमार टाँक एवं अजीत कुमार।