बिदेसिया

बिदेसिया बिहार की लोक नाट्य शैली का मानक है। भोजपुरी भाषा के शेक्सपियर कहे जाने वाले लोकनर्तक, लोकगायक, लोकनाटककार, और लोक कलाकार भिखारी ठाकुर ने कई नाटकों का सृजन किया, जिनमें सामाजिक कुमान्यताओं, दुष्परम्पराओं तथा कुप्रथाओं को भोजपुरी भाषा के संवादों और गीतों से प्रस्तुत किया है। इनमें से "बिदेसिया" एक ऐसी कहानी है जो आज भी प्रासंगिक है और विश्व के हर हिस्से में घटित हो रही है। बिदेसिया एक युवक है जो अपनी नवव्याहता पत्नी प्यारी को छोड़कर कलकत्ता (आज का कोलकाता) चला जाता है और लौटकर नहीं आता है। प्यारी को बटोही मिलता है और वो बिदेसी को ढूंढकर लाने के लिया मान जाता है। बटोही बिदेसी को खोज भी लेता है, पर पता चलता है की उसने एक और शादी रखेलिन से कर ली है और उससे दो बच्चें भी है। बटोही बिदेसी को उलाहना देता है और प्यारी के दुखःमय जीवन की बात सुनाकर उसे वापस गाँव जाने के लिए राज़ी कर लेता है। बिदेसी लौटता है और पीछे- पीछे रखेलिन भी अपने दोनों बच्चों समेत पहुँचती है। आज भी रोज़गार की अनुलब्धता के कारण लोग गाँव से शहर और महानगरों में पलायन करते हैं। शरीर और मन- मस्तिष्क का माइग्रेशन होता आ रहा है।
                   निर्माण कला मंच द्वारा इस नाटक की प्रथम प्रस्तुति सन १९९० में की गयी। संगीत, परिकल्पना एवं निर्देशन चर्चित रंग निर्देशक श्री संजय उपाध्याय का था। इसमें भाग लेने वाले सभी कलाकार आज एक सम्मानपूर्ण जीवन जी रहे हैं। तब से पृथ्वी थियेटर फेस्टिवल (मुंबई) तथा भारत रंग महोत्सव (नयी दिल्ली) सह भारत के तक़रीबन सभी बड़े नाट्य महोत्सवों में इस नाटक की सैंकड़ों प्रदर्शन हो चुकें है। कभी ये नाटक तीन घंटों तक दर्शकों को मनोरंजित करता था और इसमें मध्यांतर भी होता था, पर इन दो दशकों में इसकी अवधि सवा घंटे में सिमट चुकी है। कितने ही कलाकारों ने इसमें काम किया और बदले। कुछ गीत बदलें, गीतों के धुन बदले, दृश्यों में फेर- बदल हुआ, पर अब भी इसका जादू बदस्तूर कायम है।
                इस नाटक ने बिहार की लोक संस्कृति का झंडा भारत के विभिन्न राज्यों में फहराया और यहाँ की लोक समृद्धता को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दी।