सफ़रमैना

बाल रंगमंच को बढ़ावा देने एवं बच्चों में रंगकर्म के प्रति रूचि जागृत करने के उद्देश्य से सन्  १९९० में बाल मण्डली सफ़रमैना का गठन किया गया और इसके द्वारा अबतक कई किस्म के कार्यक्रमों का आयोजन किया गया। यहाँ ज्ञातव्य है की पटना के बदनाम स्थल नंदनगर कॉलोनी, जहाँ का वातावरण असामाजिक घटनाओं से पल-पल सशंकित रहता था, के बच्चें प्रथम नाट्य कार्यशाला में हमारे पास आये और अपने लगभग तयशुदा डरावने भविष्यरात्रि को एक आशापूर्ण सुबह में बदल दिया। उसी कार्यशाला से उपजे कई बच्चे राष्ट्रिय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली से स्नातक हुए, कई ने अपनी नाट्य संस्थाएँ बनायीं और कई दिल्ली एवं मुंबई में रहकर विभिन्न टेली सीरियलों एवं फिल्मों में काम कर अपनी जीविका एवं मर्यादा के साथ बिता रहें हैं।
साथ ही स्लम तथा स्कूलों के बच्चों के साथ कई नाट्य कार्यशालाओं का आयोजन किया गया और ये सुखद है कि इन कार्यशालाओं द्वारा निर्माण परिवार के साथ जुड़ने वाले बच्चों में नाट्यकला के संस्कार और अनुशासन के प्रसार से उनमें आशातीत परिवर्तन आये।
सन्  १९९९- २००० में यूनिसेफ के सहयोग से ४५ दिवसीय आवासीय बाल नाट्य कार्यशाला का आयोजन किया गया जिसमें बिहार के प्रख्यात कलाकार यथा- रॉबिन शॉ पुष्प, आलोक धन्वा, विद्यानंद सहाय, विश्वजीत सेन, परशुराम शाश्त्री, अवधेश प्रीत जैसे साहित्यकार, रेकी मास्टर चंद्रकांत पाटिल, नृत्यांगना अंशु दुबे, डॉ. जीतेन्द्र सहाय, चित्रकार श्याम शर्मा आदि ने निःशक्त बच्चों को कला के गुर सिखाए।
सफ़रमैना द्वारा अबतक विभिन्न रंग निर्देशकों यथा- संजय उपाध्याय (रानावि), विजय कुमार (रानावि), विनोद राई (रानावि), सुभ्रो भट्टाचार्या आदि के निर्देशन में बकरी, चार किस्से चौपाल के, चमत्कारी जूता, बड़े मियां छोटे मियां, बरगद- बरगद कुत्ता, कोशिश, रवि के रंग, अंधों का हाथी, बाल श्रम से छुट्टी, धनपत के किस्से, दिन फिरे कचरे के, मुक़दमे का मुखौटा, डैडी बदल गए, पता नहीं, अंधेर नगरी, घेरा, रावण, कनुआ नाई, रोशनी, राजा का बाजा, सदाचार का ताबीज़, चरणदास चोर, हमारी बुढ़िया, चीफ की दावत, बजे ढिंढोरा, बेटी बेचवा, गाँधी चौक, ये बच्चा किसका है, बाल श्रम से मुक्ति, शंकर को गुस्सा क्यों आता है, गोपी गवैया बाघा बजैया आदि नाटकों की प्रस्तुति हुयी है और रंगप्रशिक्षण का ये क्रम निर्बाधित रूप चल रहा है।